BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 12

अन्तःप्रज्ञावाद या सहजज्ञानवाद

(Intuitionism)

 

प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।

अथवा
नैतिक मापदण्ड के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।
अथवा
अन्तः अनुभूतिवाद की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

पाश्चात्य जगत में संत आगस्टीन से लेकर संत एक्यूनस तक लगभग सात सौ वर्षों के एक लम्बे काल में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव था। इस धर्म के प्रादुर्भाव से पूर्व भी मनुष्य के सम्मुख आचरण के मानदण्ड थे किन्तु जब गिरजाघर की ओर से मनुष्य के आदर्श घोषित किये गये तब लोगों को उन आदर्शों में आकर्षण दिखाई दिया। इसलिए लोगों ने इस नवीन धर्म को स्वीकार किया। उन्होंने ईसाई नैतिकता को ग्रहण करके इसके अनुरूप आचरण को सत् कहा। अतः लोगों ने प्राचीन दार्शनिक सिद्धान्तों तथा अपने समय की नवीन वैज्ञानिक प्रगति की ओर देखना प्रारम्भ किया। उनके अतीत में प्लेटो और अरस्तू के दार्शनिक सिद्धान्त थे तथा उनके सामने कोपरनिकस, गैलीलियो, केपलर आदि के क्रान्तिकारी और महत्वपूर्ण आविष्कार थे और उनके अचेतन मन में धार्मिक नियमों के पालन का गहरा प्रभाव था। मनुष्य ने इन सब प्रभावों के साथ 19वीं शताब्दी में प्रवेश किया।

17वीं शताब्दी में टामस हाब्स ने प्रकृतिवाद का प्रतिपादन करके बतलाया कि प्रकृति के नियम शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय हैं। इन नियमों के आधार पर कर्म के औचित्य अनौचित्य का निर्धारण किया जा सकता है। नैतिकता को समझने के लिए प्रकृति की ओर वापस लौटना आवश्यक है। नैतिक कर्म सामाजिक जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक हैं। हाब्स के दृष्टिकोण से धार्मिक विश्वास खण्डित हो रहे थे। आर. ए. पी. राजर्स का कथन है कि "धर्म के प्रभाव को स्थिर रखने के लिए 17वीं और 18वीं शताब्दी के आंग्ल अन्तः प्रज्ञावादियों ने दार्शनिकों के विचारों के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया करना आवश्यक समझा। कैम्ब्रिज के विचारकों, जो अपने को प्लेटो का अनुयायी कहते थे, ने किसी प्रकार दैवी नियमों को मनुष्य तक लाने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने विचार करना प्रारम्भ किया कि नैतिक नियमों का यथार्थ स्रोत क्या है? प्रस्तुत कर्म को सत् . या असत् घोषित करता है।

इसी शताब्दी में जान लॉक ने बुद्धिवादियों के सहज प्रत्ययों का खण्डन किया और कहा कि ज्ञान का स्रोत अनुभव है। इन्द्रियों से प्राप्त संवेदन और स्वसंवेदन से ही ज्ञान निर्मित होता है। कैम्ब्रिज के विचारकों ने सम्भवतः इसी ढाँचे पर विचार करके यह कल्पना प्रस्तुत की कि जिस प्रकार विभिन्न ज्ञानेन्द्रियाँ अपने से सम्बन्धित गुणों का तत्काल प्रत्यय कर लेती हैं, उसी प्रकार मनुष्य के पास छठवीं इन्द्रिय के रूप में एक सहज प्राकृतिक शक्ति है जो आचरण के सत्-असत् भाव का तत्काल प्रत्यक्ष कर लेती है। इस स्वीकृति के आधार पर कैम्ब्रिज के प्लेटोवादियों ने जिस नैतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है उसे सहजज्ञानवाद, अन्तः प्रज्ञावाद, अन्तः अनुभूतिवाद कहा जाता है।

अन्तःप्रज्ञावाद की विशेषताएँ

अन्तःप्रज्ञावाद के अनुसार मनुष्य के पास पाँच ज्ञानेन्द्रियों से भिन्न एक छठवीं इन्द्रिय के रूप में विशिष्ट प्राकृतिक शक्ति भी है जो सत्-असत् सम्बन्धी गुणों का तत्काल एवं सहज रूप से प्रत्यक्ष करती है। इस सहज प्राकृतिक शक्ति को अन्तःकरण, अन्तरात्मा, अन्तः अनुभूति आदि कहा गया जो नैतिक निर्णय की कसौटी है। यही शक्ति सत्- असत् कर्तव्य-अकर्तव्य की निर्णायक है। मैकेन्जी कहते हैं कि "अन्तः प्रज्ञावाद वह सिद्धान्त है जो किसी कर्म को उसमें अन्तर्भूत स्वभाव के आधार पर सत् अथवा असत् घोषित करता है, उस लक्ष्य के आधार पर नहीं जिसके लिए वह कर्म करता है।" रैशडेल का मत है कि "अन्तः प्रज्ञावाद वह सिद्धान्त है जो कर्म के परिणाम पर विचार किये बिना उन्हें निरपेक्ष रूप से सत् या असत् घोषित करता है।'

(i) नैतिक गुण मौलिक हैं- अन्तः प्रज्ञावाद के अनुसार नैतिक गुण कर्म में अन्तर्भूत हैं। कर्म अपने स्वभाव के कारण ही सत् या असत होता है। नैतिक गुण अव्युत्पन्न हैं। सत् सदैव सत् ही होता है। नैतिक गुण मौलिक और अनुपम हैं, ये वस्तुतगत हैं और कर्म में निहित रहते हैं।

(ii) अन्तःकरण नैतिकता का मानदण्ड है- नैतिक गुण कर्म में अन्तर्भूत है। अन्तःकरण प्रकार नैतिक इन्द्रिय भावात्मक तथा अभावात्मक दो रूपों में प्रतिक्रिया करती है। भावात्मक रूप से नैतिक इन्द्रिय प्रतिक्रिया करके यह निर्णय देती है कि कोई कर्म नैतिक दृष्टि से सत् है। वह अभावात्मक रूप से प्रतिक्रिया करके यह निर्णय देती है कि कोई कर्म नैतिक दृष्टिकोण से असत् है। नैतिक इन्द्रिय के सत्-असत विषयक निर्णय या अनुमोदन या अननुमोदन के भाव सहज और प्रकृतिक हैं। ये कर्म के नैतिक गुणों को अभिव्यक्त करते हैं। इनका विवेक या विचार से कोई सम्पर्क नहीं होता है।

अन्तःप्रज्ञावाद या सहजज्ञानवाद के अनुसार नैतिक इन्द्रिय या अन्तःकरण नितान्त अपूर्व है। नैतिक इन्द्रिय कर्म के ऊपर जो भी निर्णय देती है वह सौन्दर्यमूलक निर्णय और बौद्धिक निर्णय से बिल्कुल भिन्न है। नैतिक इन्द्रिय किसी कर्म के नैतिक गुण का तत्काल प्रत्यक्ष करने वाली एक विशिष्ट इन्द्रिय है। नैतिक इन्द्रिय कर्म पर सहज रूप से निर्णय देती है किन्तु नैतिक इन्द्रियवाद में नैतिक इन्द्रिय को सत् कर्म की प्रशंसा तथा उसके अनुमोदन की भावना और असत् कर्म की निन्दा तथा उसके अनुमोदन की भावना के अधीन कर दिया गया है। रैशडेल का कथन है कि "नैतिक अनुमोदन नितान्त अपूर्व भाव है। यदि नैतिक अनुमोदन को एक भावनामात्र कहा जायेगा तो उसे अन्य भावनाओं से उत्कृष्ट कैसे सिद्ध किया जायेगा। यदि नैतिक अनुमोदन इन्द्रियजन्य भावना से उच्चतर और नितान्त अपूर्व है तो इसमें मूल्य निर्धारक निर्णय या बुद्धि के आदेश विद्यमान होंगे। रैशडेल का कथन है कि "केवल भावनामात्र मान्य नहीं होती है, बल्कि उसके मूल्य निर्देश करने वाले निर्णय मान्य होते हैं।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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